Real love story

हैप्पी बर्थडे साहिल! नींद में सराबोर मेरी आँखे इन्ही शब्दों के साथ खुली | हाथों में गुलदस्ता और एक प्यारी मुस्कान लिए सामने खडी थी, नेहा | नीला सूट, सफ़ेद चुनरी, काली बिंदी और झुमके पहने, नेहा | मै उसे एक पल देखता ही रह गया | कितनी सुन्दर लग रही थी | उसने आगे बढ़कर मुझे गुलदस्ता दिया और मुस्कुराते हुए मैंने उसे शुक्रिया कहा | “मेरा जन्मदिन तुम्हे याद था?” मैंने पूछा? “बिलकुल | हमारी शादी की सालगिराह के ठीक ६: महीने बाद तुम्हारा जन्मदिन आता है | वैसे भी मुझे सब याद रहता है | तुम्हारी तरह नही हूँ कि हर चीज़ याद दिलानी पड़े” | नेहा ने शरारती अंदाज़ में कहा | इससे पहले मै कुछ कहता वह फिर बोल पड़ी | “सुनो मैंने इडली-साम्भर, लस्सी, ब्रेड-रोल और रसमलाई बनाई है तुम्हारे लिए, वह भी सुबह जल्दी उठकर | इसलिए जल्दी बाहर आ जाओ और सुन लो जैसी भी बनी हो तारीफ़ करनी पड़ेगी” | किसी जीते हुए योद्धा की भाँति उसने मुझे छेडा और हँसते हुए बाहर चली गई |
            ऎसी ही थी मेरी नेहा | शादी के बाद विदाई के समय उसकी आँखों में आँसू देखे थे |  उसके बाद मै कभी भी समझ नही पाया कि कोई इतना खुश कैसे रह सकता है | अपने आस पास जहाँ हर आदमी अपनी छोटी से छोटी समस्या में भी दुखी दिखाई पड़ता है, वही नेहा अपनी सभी परेशानियों में भी हर दिन और चुलबुली होती गई | उसके अन्दर पत्थर को भी हँसाने की ताकत थी | उसके लिए असीम प्रेम और इज्ज़त का भाव लिए मै दफ्तर के लिए तैयार हो गया और बाहर पहुँचा | नेहा मेज़ पर बैठी अपने फोन पर कुछ लिख रही थी | मेज़ को उसने कितने करीने से सजाया था | उसने मुझे देखा और एक तंज़ दाग दिया | “कितनी देर से इंतज़ार कर रही हूँ | बहुत भूख लग रही है और तुम इतनी देर से आ रहे हो” | “तुमने अभी तक कुछ नही खाया? पर क्यों?” मैंने पुछा | वह बस मुस्कुरा दी और मेरी थाली में इडली परोसने लगी | “आज तुमे क्या तोहफा चाहिए? शाम को दफ्तर से लौटते समय लेकर आउंगी” | उसने मुझसे पूछा |
हम अपनी ज़िंदगी में इतना व्यस्त हो चले है कि अपने प्रियजनों के लिए भी ठीक से समय नही निकाल पाते | नेहा के जवाब में मैंने कहा “मै तुम्हारा थोड़ा समय माँगता हूँ | आज शाम कही बाहर चलते है | साथ-साथ सिर्फ हम-तुम” | नेहा हँस पड़ी और कहा “दिया | मैंने अपना सारा समय तुम्हे दिया | तो यह तय रहा, शाम को तुम मुझे दफ्तर से लेने आओगे और फिर हम खाना खाने मुगलई रेस्तरा चलेंगे”| नेहा को दफ्तर छोड़ने के पश्चात जब मै वहाँ से जाने लगा तो मैंने देखा नेहा एक टक होकर व्याकुलता से मुझे देख रही थी| मै कुछ समझ नही पाया | मानो वह कह रही हो कि रुक जाओ साहिल, मुझे छोडकर मत जाओ| परन्तु मैंने गाड़ी घुमाई और अपने दफ्तर की ओर चल पडा| पर काश मैंने उसकी बात मान ली होती|
शाम को मै दफ्तर से निकल ही रहा था कि अचानक एक अति महत्त्वपूर्ण काम आ गया जिसके कारण मुझे दफ्तर में कुछ देर के लिए और रुकना पडा| मैंने यह बात नेहा को भी बताई कि मै उसे लेने नहीं आ पाउँगा और उससे कहा कि वह खुद ही मुगलई रेस्तरां पहुँचे| मेरे नेहा को यह बात बताने के बाद वह कुछ बोली नही और न ही संपर्क काटा| उसने बस इतना कहकर अपना भ्रमणभाष रख दिया कि “ठीक है, पर इसकी सज़ा मिलेगी तुम्हे” | कुछ अंतराल के बाद मै उस रेस्तरां में पहुँचा| नेहा को वहाँ न पाकर मै उसका इंतज़ार करने लगा| मैंने नेहा के भ्रमणभाष पर कई बार संपर्क स्थापित करने की कोशिश की परन्तु वह बंद था| मै समझ गया कि यह नेहा की नाराज़गी से उत्पन्न शरारत होगी कि मै उसे लेने नही आया और इसलिए मै नेहा के दफ्तर चला गया| वहाँ मुझे पता चला कि नेहा १ घंटे पूर्व ही वहाँ से निकल चुकी थी| मैंने गाड़ी घुमाई और दोबारा रेस्तरां की तरफ बढ़ चला| रास्ते में मै राहगीरों को देखता जा रहा था कि नेहा दिख जाए पर वह नही मिली|
मै कुछ घबरा गया क्योंकि कई बार नेहा मुझसे नाराज़ हुई थी किन्तु वैसा व्यवहार उसने कभी नही किया था| नेहा का फोन अभी भी बंद था| मुझको लगा कि शायद नेहा घर चली गई हो इसलिए मै भी घर चला गया| घर बंद था और नेहा अभी तक घर भी नही पहुँची थी| रात्रि के ९ बज चुके थे| नेहा बिन बताए इतनी देर तक कभी भी घर से बाहर नही रही थी| मेरा दिल गले को आ रहा था परन्तु मै यही सोच रहा था कि नाराजगी में मुझे परेशान करने के लिए वह किसी सहेली के घर चली गई होगी और अपने भ्रमणभाष को बंद कर दिया होगा| सुबह खुद ही आ जाएगी| पर यह कोई तरीका नही होता है| इस बार उसने अच्छा नही किया| ऐसा कैसा मज़ाक कि सामने वाले की जान ही सूख जाए|
उस रात मै श्वान निद्रा ही ले पाया| हर थोड़ी देर के अंतराल पर मेरी नींद खुल जाती थी| सुबह ७ बजे मेरा फोन बजने लगा| वह फोन नेहा का ही होगा ऐसा मानकर मैंने फोन उठाया| सामने से आवाज़ आई- “मिस्टर साहिल?”| मै डर गया और उस अंजान आवाज़ के बारे में पूछने लगा| “मेरा नाम इंस्पेक्टर देवेन्द्र कुमार है| मुगलई रेस्तरां के पास जंगल वाली सड़क पर हमें नेहा नाम की लड़की बेसुध हालत में मिली है| आपका नंबर उनके फोन से ही मिला| हम उन्हें नागरिक अस्पताल ले जा रहे है आप भी जल्द पहुँच जाइए”| मेरे पैरो तले ज़मीन खिसक गई| मेरा शरीर इस त्रास्दी का भार सह न पाया और सुन्न पड़ गया| मेरा मन शून्य की दशा में चला गया| किसी तरह हिम्मत जुटाते हुए मै अस्पताल पहुँचा|
“इंस्पेक्टर साहिब मै साहिल, नेहा का पति” मै बोला| “तो आप आ गए साहिल जी”, इंस्पेक्टर देवेन्द्र कुमार ने जवाब दिया| “आपकी पत्नी बहुत भाग्यशाली हैं कि इतनी सुनसान सड़क पर भी कुछ लकड़हारों ने इन्हें देख लिया और हमें बता दिया वरना कुछ भी हो सकता था| नेहा के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती की कोशिश की गई है| वह इस समय कमरा संख्या १० में हैं| जाइए, आपकी जरूरत है उन्हें”| मै दौड़ता हुआ उस कमरे में पहुँचा और नेहा को देखते ही पत्थर बन गया| नीले कपड़ो में नेहा बिस्तर पर लेटी थी| तमाम मशीने और डॉक्टर यही बता रहे थे कि वह खतरे से बाहर थी|
उसकी आँखें एक टक कमरे की छत को निहार रही थी| उसके शरीर में साँसों के अतिरिक्त कोई हलचल ही नही हो रही थी| अति मंद गति से चलती उसकी साँसों में भी कितना भार होगा यह सिर्फ नेहा ही जानती थी| कभी न चुप रहने वाली चुलबुली नेहा एक बेजान पुतले की तरह पडी थी| यह देखकर मेरे शरीर की ताकत भी बाहर निकल गयी और मै अपने घुटने पर गिर पड़ा| नेहा की ऎसी हालत मुझसे देखी न जा रही थी| डॉक्टर ने मुझे संभाला और नेहा के पास बिठा दिया| मै अपने आँसूओं को रोक नही पा रहा था और मन ही मन अपने आप को कोस रहा था कि सुबह मैने उसे अकेला क्यों छोड़ा ? मैने नेहा के हाथों को स्पर्श किया और कहने लगा “हमें तो बाहर खाना खाने जाना है| अब तुम ही देर कर रही हो”….तत्पश्चात मै चुप हो गया और विलाप करने लगा| मै नेहा के पास ही रहता और इस बात का ध्यान रखता कि नेहा के इलाज में कोई कमी न आए|
तीन दिन बाद नेहा को अस्पताल से छुट्टी मिल गई| मै उसे पकड़कर गाड़ी तक लाया| उस कूदती-फुदकती नेहा को आज अपने पैर घसीटने पड़ रहे थे| यूँ प्रतीत होता था मानो वह अपने ऊपर कितने सौ किलो का वज़न लादे हुए थी| मै उसे घर ले आया| जब मेरी गाड़ी मेरे घर के नीचे रुकी तब सब मोहल्ले वाले तमाशा देखने आ गए थे| कुछ लोगों की संवेदनहीन बाते मेरे कान में पड़ने लगी| नेहा और मेरी पीड़ा जानने के बाद भी कोई हमारा हाल पूछने नही आया बल्कि कुछ लोग अपने घरो की खिडकी बंद करते दिखे| यह लोग उस समाज का प्रतिनिधित्व करते है जो संवेदनहीन हो चुका है| जिसे अपनी सहेली से फोन पर गप्पे हाँकने के लिए कोई भी खबर चाहिए| वह समाज जो मरते इंसान की सहायता करने के बजाए उसकी तस्वीर खीचने में लगा रहता है उससे और कोई उम्मीद की भी नही जा सकती थी| दुःख तो इस बात का था कि हमारे खुशी के दिनों में मदद और मानवता की डींगे हाकने वालों ने आज एक लड़की को इंसान मानने से ही इन्कार कर दिया था| परन्तु मुझे इन बातों से कोई भी फर्क नही पड़ता था| नेहा आज भी मेरे लिए उतनी ही ख़ास और मूल्यवान थी जितनी की पहले|
अत्यंत भारी मन से मै नेहा को घर के अन्दर लाया और उसी बिस्तर पर लिटा दिया जिसपर से नेहा ने ही मुझे ३ दिन पहले उठाया था| उसे देखकर मै बस यही सोच रहा था कि उस दिन नेहा मेरे उठने का इंतज़ार कर रही थी और अब न जाने कितने दिनों तक मै उसके उठने का इंतज़ार करता रहूँगा| मैंने तोहफे में उससे उसका सिर्फ थोड़ा सा समय माँगा था परन्तु वह इस स्वरुप में मिलेगा मैंने कभी कल्पना भी नही की थी| रात हो चली थी इसलिए नेहा को वही छोड़कर मै नीचे उसके लिए कुछ खाने का बंदोबस्त करने चला गया| वहाँ फ्रिज में नेहा की बनाई रसमलाई अभी भी रखी थी| उसने मेरे लिए कितने प्यार से बनाई थी| मै और सामान देख ही रहा था कि अचानक नेहा के चीखने की आवाज़ आने लगी|

सब कुछ छोड़कर मै ऊपर भागा| नेहा बिस्तर पर ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही थी| “मुझे बचाओ मुझे बचाओ वह मुझे मार देगा”| वह भ्रम की अवस्था में चली गई थी और उसका मस्तिष्क उसे पुराने घटनाक्रम की तस्वीरे दिखा रहा था| उसकी साँसे उखड़ने लगी और शरीर से पसीने का प्रवाह अत्यंत ही प्रबल हो गया| मै शीघ्रता से उसके पास गया और उसका हाथ थामा ताकि मै अपनी मौजूदगी दर्ज करवा सकूँ| नेहा ने एकाएक मुझे पकड़ लिया| मै उसे बार-बार यह कहने लगा कि सब ठीक है| उसे कोई खतरा नही है| वहाँ कोई नही है| मैंने उसे लिटाया और उसके माथे पर हाथ सहलाने लगा| नेहा धीरे-धीरे शांत हो गई| मै उसे अभी भी यही कह रहा था कि मै उसके पास ही हूँ और मै उसे कुछ नही होने दूँगा| नेहा ने कुछ नही कहा परन्तु मैंने देखा उसकी आँखों के कोने से एक आँसू की बूंद बह गयी| मै दोबारा उसके लिए कुछ खाने के लिए लाने के लिए उठने लगा तो नेहा ने मुझे और ज़ोर से पकड़ लिया| वह पुनः व्याकुलता से मेरी तरफ देख रही थी मानो कह रही हो रुक जाओ साहिल, मुझे अकेला छोड़कर मत जाओ| इस बार मैंने अपनी गलती नही दोहराई और उसके पास बैठा रहा| कुछ अंतराल के बाद नेहा सो गई|
दुःख और क्रोध की प्रचंड लहरे मेरे मन में उफान पर थी| नेहा को किसी दवा और चिकित्सक से ज्यादा अपनेपन और प्यार की जरूरत थी| उसके चूर हुए आत्मविश्वास को पुनः फर्श से अर्श तक ले जाने की ज़रूरत थी| नेहा के अन्दर चल रही लड़ाई में अब मेरे योगदान की बारी थी और मैने भी यह निश्चय कर लिया था की मै उसे पहले जैसा बनाकर ही दम लूंगा|
नेहा हमेशा अपने इर्द-गिर्द लोगों की अनुभूति करती थी और इसलिए उसे सदा तनाव व भ्रम में ही देखता था| यह डर और चिल्लाना अब मानो रोज़ का सिलसिला हो गया था| उसको शांत करना बहुत मुश्किल काम हो गया था| एक रात मै नेहा को खाना खिलाने की कोशिश कर रहा था | यूँ तो वह खाने की शौक़ीन थी पर अब एक साधारण रोटी भी वह खा नही पा रही थी| अचानक वह रोने लगी| न जाने इस बार उसके मन के किस रथी को तीर लगा था| कहने लगी “मुझे माफ़ कर दो साहिल| शायद मेरी ही कोई गल्ती रही होगी जो मुझे यह सज़ा दी गई| मैंने कुछ तो ऐसा जरूर किया होगा जो मेरे साथ ऐसा हुआ| मेरे में ही सब कमियाँ है| मै सबके लिए एक बोझ हूँ| इस बोझ से मुझे बहुत दर्द हो रहा है| तुम मुझे छोड़कर चले जाओ| अब मै तुम्हारे योग्य नही रही”|
नेहा के इस स्वरुप की मैंने कभी कल्पना भी नही की थी| जो लड़की किसी निर्जीव में भी प्राण फूँकने का सामर्थ्य रखती थी, वह आज इतनी टूट गई थी कि अपने आप को ही निराशा से बाहर निकाल नही पा रही थी| उसके मुख का तेज़ कही गुम हो गया था| नेहा ने कभी किसी का दिल नही दुखाया पर अब उसने अपने दिल पर न जाने कितनी बातों का भार डाल दिया था कि खुद ही अपने में घुटने लगी थी| मैंने नेहा के आँसू पोछे और उससे कहा “तुम्हारी कोई गलती नही है| तुमसे कभी कोई गलती हो ही नही सकती| तुम कितनी अच्छी हो, सबका कितना ध्यान रखती हो| तुमने कितने असहाय लोगों की मदद की है और वह आज कितनी अच्छी जगह पहुँच गए हैं| बस अड्डे पर वह लड़की तो तुम्हे याद ही होगी जो अपने परिवार से बिछुड़ गई थी | तुमने अथक प्रयासों से उसे उसके परिजनों से मिलवाया था| वह लोग तुम्हे देवता तुल्य मानते है| यदि तुम ऐसा न करती तो न जाने उस लड़की का जीवन आज कैसा होता| इसके बाद भी तुम कह रही हो कि तुम किसी पर बोझ हो| नही, तुम्हारे जैसे लोगों की इस दुनिया को बहुत जरूरत है| तुम अभी भी मेरे लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हो जितनी की पहले| सब ठीक हो जाएगा” |
मेरी यह बाते नेहा के मन तक पहुँच रही थी की नही मै नही जानता था परन्तु उसकी इन बातों ने मेरे मन को व्यथित कर दिया था| मेरा मन बस यही सोच रहा था कि नेहा कहीं अपने आप को कोई क्षति न पहुँचा ले| कुछ ही दिन के अंतराल में मैंने सभी धारदार और नुकीली चीजों को घर से हटा दिया| नेहा का कमरा पहली मंजिल पर था इसलिए मैंने सभी खिडकियों में जाली लगवा दी| सभी पंखे उतरवा दिये| ऐसा करना मुझे अच्छा नही लग रहा था क्योंकि इससे ये प्रमाणित हो रहा था कि मुझे नेहा पर भरोसा नही था| पर सच तो यह था कि इस बार मै कमज़ोर पड़ गया था| मै किसी भी स्थिति में नेहा को खो नही सकता था|
मै रोज़ उसके साथ बैठता, उससे बाते करता, उसकी तारीफ़ करता| मै उसे वह सारी उपलब्धियाँ गिनवाता जो उसे लोगों का मसीहा दर्शाते है| पहले वह अपने प्रियजनों और सहेलियों से बाते किया करती थी परन्तु अब उनके दूरभाष को स्वीकारती नही थी| उसने अपने आप को सामाज से बिलकुल काट लिया था| बस पूरे दिन सर झुकाए न जाने किन-किन विचारों से लड़ती रहती थी|
इतना प्रयास करने के बाद भी मै नेहा की हँसी वापस नही ला पा रहा था| तभी विचार आया कि मेरे मित्र शर्मा जी की बच्ची नेहा के साथ खूब खेलती थी और उसके साथ नेहा भी खूब मज़े करती थी| मैंने सोचा कि यदि वह वहाँ आ जाए तो नेहा को कुछ हल्के पल मिल जाएँ| यही आस लिये मै शर्मा जी के घर पहुँचा| घर की घंटी बजाई तो भाभी जी ने द्वार खोला| मुझे देखती ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया| बड़े ही अनमने ढंग से मुझे अन्दर बैठाया गया और कुशल क्षेम के बदले बस यही पूछा कि “आपको यहाँ आते किसी ने देखा तो नही?”| मै सब कुछ समझ रहा था| इसलिए अपने लिये शिष्टाचार की उम्मीद नही करता था| उस समय मेरे से ज्यादा नेहा महत्वपूर्ण थी| मै सबका हाल चाल ले ही रहा था कि उनकी बच्ची अंकल-अंकल करती मेरे पास आने लगी| पर उसकी माँ ने उसे डाँटकर पुनः अन्दर भेज दिया| मैंने सीधे ही अपने आने का प्रयोजन बताया| “भाभीजी-भाईसाहब मै नेहा को ठीक करने की तो पूरी कोशिश कर ही रहा हूँ और उसमे काफी सुधार भी है परन्तु अभी भी वह अन्दर से घुटन महसूस करती है| मैंने देखा है कि जब आपकी बेटी हमारे यहाँ आती है तो नेहा उसके साथ खूब खेलती है और हँसी मज़ाक करती है| इसलिए मै आपसे विनती करता हूँ कि कुछ देर के लिये यदि आप उसे मेरे यहाँ ले आएँ तो नेहा को अच्छा लगेगा”|

शर्मा दंपत्ति एक दूसरे को आँखों ही आँखों में इशारे करने लगे और फिर भाभीजी ने कहा “नही-नही, मै अपनी बच्ची को वहाँ कभी नही भेजूँगी| नेहा तो अपने चाल-चलन की सज़ा भुगत ही रही है| मेरी बेटी उससे मिलेगी तो न जाने क्या-क्या सीख जाएगी| मैंने सुना है की नेहा रात में दफ्तर से निकलकर अपने पुरुष मित्रो के साथ खूब हँस-हँस के बाते करती थी| यही सब मेरी बेटी को भी सिखाना चाहते हैं ? आपसे अपनी पत्नी तो संभल नही रही और उम्मीद करते हैं की मेरी बेटी उसे संभाले| माफ़ कीजिए यह नही हो सकता”|
मेरी बेबसी में बस यही सुनना बचा था| भाभी जी के माध्यम से हमारा समाज बोल रहा था जिसके अन्दर से मानवता समाप्त हो चुकी है| किसी को भी सुध नही थी कि वास्तविकता क्या थी पर सभी ने अपने अनुसार अपनी कहानी बना ली थी| उन्होंने दोषी चुन लिया, मुकदमा भी चला लिया और उस इंसान को सज़ा भी सुना दी जो खुद शिकार हुआ था| मेरी नेहा हारी नही थी परन्तु इस समाज ने उसे हरा दिया था|
मैंने नेहा की पैरवी करते हुए कहा “भाभीजी, आपने बिना कुछ जाने नेहा पर ही उंगली उठा दी ? इस पूरे वाकिया में उसकी लेश मात्र भी गलती नही थी| उसकी मनोदशा का आपको अंदाजा भी है ? मै उसे पहले जैसा बनाने के लिये क्या कुछ नही कर रहा हूँ| उसे थोड़ी खुशी मिल जाए इसलिए आपसे सहायता माँगी थी किन्तु आपने तो उसके चरित्र पर ही सवाल उठा दिए”| इतनी बेइज़त्ति के बाद भी मैंने एक आखिरी कोशिश की और शर्मा जी की तरफ देखा परन्तु उन्होंने भी अपनी आँखों से वास्तविकता की जगह अपने मोबाइल को ही देखना बेहतर समझा|
घर लौटते समय एक लाल बत्ती पर मै रुका तो मैंने देखा कि एक व्यक्ति फूल बेच रहा था| उन्हें देख कर मुझे वह गुलदस्ता याद आया जो नेहा ने मुझे मेरे जन्मदिन पर दिया था| मैंने भी उसके लिये एक लाल गुलाब का फूल और एक बहुरंगी फूलों का गुलदस्ता खरीद लिया| घर पहुँच कर मैंने एक मुस्कान के साथ वह फूल नेहा की तरफ बढाया| परन्तु वह उसे स्वीकारने की हिम्मत न जुटा पाई| मैंने उस फूल को उसकी गोद में रख दिया और वह गुलदस्ता उसके बगल में सजा दिया| कुछ अंतराल के पश्चात जब मै पुनः उस कमरे में आया तब वहाँ के बदले माहौल को देखकर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा| मै दरवाज़े पर ही खड़ा होकर उस पल को अपने अन्दर समेटने लगा| नेहा उस गुलाब के फूल को हाथों में पकडे निहार रही थी| उसके मुख पर एक हल्केपन का भाव था| गुलदस्ते को भी नेहा ने अपनी गोद में रखा था मानो उन बहुरंगी फूलों से अपना श्रृंगार कर रही हो|
उन बेजुबान फूलों ने अपने रंगों से एक अजनबी लड़की को, जो तकरीबन पाषाण बन चुकी थी, पुनः जीवित कर दिया था| वही दूसरी तरफ इंसानों ने अपना असली रंग दिखाकर एक हँसती खेलती लड़की की आत्मा को ही मार दिया था| मै भीतर गया और नेहा को बिस्तर से उठाकर आईने के सामने खडा किया| वह बहुत ही असहज महसूस कर रही थी| अपने आप से ही नज़रे नहीं मिला पा रही थी| मैंने एक हार उसके गले में पहनाया और शीशे पर चिपकी एक बिंदी उसके माथे पर लगा दी| धीरे-धीरे अपनी पलको को उठाकर उसने अपनी आँखों से अपने आप को देखा तब उसकी भीगी पलकों ने मुझे वह सब कुछ बता दिया जो वह मुझसे कहना चाहती थी| उसके गीले चेहरे के बीच अंतत: मुझे वह दिखाई दिया जिसकी प्रतीक्षा मै कितने समय से कर रहा था| मैंने नेहा की वही मुस्कान उसके चेहरे पर देखी| उसने मुझे गले से लगा लिया| अब आँखे नम होने की बारी मेरी थी|
मैंने प्रोत्साहित होकर कई नए एवं सुगन्धित फूल उसके कमरे में रख दिए| सुन्दर तस्वीरे बड़ी करवाकर दीवारों पर लगा दी| उन तस्वीरो में उगता सूरज, उड़ते पंछी, सुन्दर घर, नैसर्गिक सौंदर्य आदि थे| उनमे नेहा की कई तस्वीरे भी थी जिसमे वह अपने दोस्तों के साथ मस्ती कर रही थी| एक तस्वीर मेरे साथ हमारी शादी के दिन की थी जिसे वह बड़े ही चाव से निहारा करती थी| इन यादों के सिवा मै उसे और दे ही क्या सकता था| उसको सुरक्षा तो दे नही पाया था इसलिए उसका गुनहगार तो मै भी था| मेरे प्रयासों से उसके विचार और व्यवहार में साकारात्मक बदलाव आने लगे थे| परन्तु मुझे इस बात का संशय अभी भी था कि क्या मै कभी भी उसे बिलकुल पहले जैसा बना पाऊँगा या नही |
इन प्रयासों में कब समय बीता पता ही नही चला| मै कभी उसको घर से बाहर लेकर जाता, कभी उसके सगे सम्बन्धियों से मिलवाता| मै उसके भावों का लगातार निरीक्षण करता ताकि उस पर ज्यादा ज़ोर न पड़े और धीमे-धीमे उसमे बदलाव भी आने लगे| अब वह मुझसे, सीमित ही सही, बोलने लगी थी| उसके इर्द-गिर्द साकारात्मक व खुशनुमा माहौल मिलने से उसके मानसिक भ्रम में कमी आई थी| यह भी भाग्य की विडंबना ही थी वह दिन पुन: आ गया था जिस दिन गत वर्ष मै उसे शादी के बाद पहली बार अपने घर लेकर आया था| उसने एक खुशहाल जीवन की कल्पना की होगी परन्तु वास्तविक रूप में उसे क्या मिला इसे लेकर वह मेरे बारे में पता नही क्या सोचती होगी | उस हादसे के बाद हमारे निकटतम सम्बन्धियों के अतिरिक्त किसी ने हमसे मानवता का भी रिश्ता नही रखा|
एक लड़ाई जहाँ नेहा लड़ रही थी वहीं एक लड़ाई मुझे भी लडनी पड़ी| अपने दफ्तर में ही मै कितनी नज़रों का शिकार हुआ| लोग मुझे ऐसे देखते थे जैसे मै किसी परग्रह से आया था| इंसानों के बीच इंसानों की क्या जगह है यह भी मैंने इसी समय में महसूस किया| हमसे अच्छे तो वह बेजुबान पशु है जो अपने मृत साथी को भी क्षुब्ध मन से विदा करते है|
इन सबके मद्देनज़र मेरा एक नियम बिलकुल स्पष्ट था कि नेहा के साथ कोई हो न हो, मै तो जरूर रहूँगा| हम दोनों को एक छत के नीचे रहते एक साल हो गया था| अपनी शादी की पहली सालगिराह पर नेहा को क्या उपहार भेट करूँ इसका निर्णय भी कठिन था| यही सोचते सोचते नेहा के बिस्तर के समीप एक कुर्सी पर मेरी आँख लग गई|
अगले दिन मेरी नींद इन शब्दों से खुली| “हैप्पी एनिवर्सरी साहिल ”| हाँथों में गुलदस्ता और एक प्यारी सी मुस्कान लिये सामने खडी थी नेहा| नीला सूट, सफेद चुनरी, गले में हार और माथे पर बिंदी लगाए नेहा को देखकर मुझे विश्वास ही नही हो रहा था| नेहा ने यह लड़ाई आखिरकार जीत ली थी और जीते हुए योद्धा की भाँति वह मेरे सामने शान से खडी थी| खुशी की सभी सीमाओं को पार करके मेरे अश्रुओं ने उसका अभिवादन स्वीकार किया और उसे गले से लगा लिया| खुशी में गदगद मेरे कंठ को शब्द नही मिल रहे थे| इतने अनमोल तोहफे की मैंने कल्पना नही की थी| मै बस इतना ही कह पाया “तुम्हे भी आज का दिन और एक नई ज़िन्दगी बहुत-बहुत मुबारक हो”|

Comments